वास्तविकता में भारत की धरातल भुखमरी रैंकिंग में 101वें स्थान पर,अनाजों के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो चुका है भारत
जर्मनी की एक संस्था द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में भुखमरी की स्थिति वैश्विक तुलना में बढ़ी है। ऐसे में इस रिपोर्ट को समग्रता में समझने की कोशिश करते हैं कि इसे तैयार करने में किस प्रकार की कार्यपद्धति और आंकड़ों का उपयोग किया गया है, सूचकांक को वे कैसे प्रभावित कर रहे हैं और भारत क्यों इससे नाराज है।
पहली बात यह है कि भुखमरी सूचकांक में इस्तेमाल किए गए आंकड़े कृषि मंत्रलय द्वारा इन वस्तुओं के उत्पादन के आंकड़ों से मेल नहीं खाते हैं। देखा जाए तो भारत में खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य पदार्थो जैसे दूध, अंडे, सब्जी, फल, मछली आदि सभी का उत्पादन बढ़ा है। पिछले दो दशकों को देखें तो दूध का कुल उत्पादन वर्ष 2000 में मात्र 777 लाख टन था जो 2020 तक बढ़ता हुआ दो हजार लाख टन तक पहुंच चुका है और हमारा दैनिक प्रति व्यक्ति दूध उत्पादन 394 ग्राम तक पहुंच चुका है। अंडों का कुल उत्पादन 2019-20 में 11440 करोड़ प्रति वर्ष रहा, जो वर्ष 2000 में मात्र 3050 करोड़ ही था। सब्जियों, फलों, मीट ही नहीं दालों और खाद्य तेलों एवं अन्य खाद्य पदार्थो की उपलब्धता अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है। यही नहीं, जिन देशों से भारत को पीछे दिखाया गया है, इन खाद्य पदार्थो की प्रति व्यक्ति उपलब्धता वहां कहीं कम है।
दूसरी बात यह कि भुखमरी सूचकांक बनाने में प्रयुक्त कार्यपद्धति के अनुसार उन्हें एनएसएसओ के खाद्य उपभोग के आंकड़े इस्तेमाल करने होते हैं और दिलचस्प बात यह है कि वर्ष 2011-12 के बाद एनएसएसओ का कोई सर्वेक्षण प्रकाशित ही नहीं हुआ। गौरतलब है कि 2015-16 के आंकड़ों का प्रकाशन उसमें गंभीर कमियों के कारण सरकार द्वारा वापस ले लिया गया था। तो क्या 2011-12 के ही आंकड़े इस्तेमाल करके 2021 के लिए भुखमरी सूचकांक तैयार कर दिया गया है, जो अत्यंत हास्यास्पद है।
तीसरी सबसे बड़ी बात यह है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक प्रकाशित करने वाली संस्था वैल्टहंगरहाइफ खाद्य वस्तुओं के उपभोग के संबंध में स्वयं कोई आंकड़े एकत्रित नहीं करती, बल्कि विश्व खाद्य संगठन (एफएओ) द्वारा संकलित आंकड़ों का ही उपयोग करती है। पूर्व में खाद्य उपभोग के बारे में एफएओ भारत की एक संस्था राष्ट्रीय पोषण निगरानी बोर्ड (एनएनएमबी) पर निर्भर करती रही है। लेकिन एनएनएमबी का कहना है कि उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में 2011 और शहरी क्षेत्रों में 2016 के बाद खाद्य पदार्थो के उपभोग का कोई सर्वेक्षण किया ही नहीं। ऐसा लगता है कि वैल्टहंगरहाइफ ने राष्ट्रीय पोषण निगरानी बोर्ड (एनएनएमबी) के आंकड़ों का भी उपयोग नहीं किया, बल्कि किसी निजी संस्था द्वारा तथाकथित ‘गैलोप’ सर्वेक्षण, जिसका कोई सैद्धांतिक औचित्य भी नहीं, का उपयोग किया है।
क्या वैश्विक भूख सूचकांक में इस्तेमाल होने वाले ये संकेतक वास्तव में भूख को मापते हैं? यदि ये संकेतक भूख के परिणाम हैं, तो अमीर लोगों को भोजन तक पहुंच की कोई समस्या नहीं है, फिर उनके बच्चे बौने और पतले क्यों होने चाहिए। 16 राज्यों के 2016 के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के आंकड़ों से पता चलता है कि यहां तक कि अमीर लोगों (कारों के मालिक) में भी क्रमश: 17.6 और 13.6 प्रतिशत बच्चे बौने और पतले हैं। अधिक वजन और मोटापे (भोजन तक पर्याप्त पहुंच) वाली माताओं में बौने (22 प्रतिशत) और पतले (11.8 प्रतिशत) बच्चे होते हैं। इस रपट के अनुसार भी पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर भी घटी है। पांच वर्ष की आयु से कम के बच्चों में ठिगनेपन की प्रवृत्ति भी कम हुई है। लेकिन इस रपट में एक विरोधाभास यह है कि जनसंख्या में कुपोषण और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में पतलेपन का प्रमाण बढ़ा है।
हालांकि प्रति वर्ष प्रकाशित होने वाली इस रपट में विभिन्न वर्षो में भुखमरी की तुलना की गई है, लेकिन रपट में यह भी स्वीकार किया गया है कि इसमें दिए गए सूचकांक, रैंकिंग और संकेतक, इसी वर्ष तक ही सीमित हैं। यानी इस संबंध में विभिन्न वर्षो के बीच तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि अलग-अलग वर्षो में आंकड़ों के स्रोत और कार्य-प्रणाली में काफी अंतर है।
वैल्टहंगरहाइफ ने किसी भी देश में भुखमरी सूचकांक का सूत्र इस प्रकार बनाया है, जिसमें एक समान तीन भाग हैं- एक तिहाई भाग खाद्य उपलब्धता, अन्य एक तिहाई भाग पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर और अन्य एक तिहाई भाग बच्चों के कुपोषण को दिया गया है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों के कुपोषण के दो संकेतक हैं- पहला पतलापन और दूसरा ठिगनापन। यानी कुल चार संकेतक और तीन आयाम भुखमरी सूचकांक में रखे गए हैं।
बच्चों में कुपोषण के संबंध में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) द्वारा समय-समय पर सर्वेक्षण होता है और वे आंकड़े विश्वसनीय माने जा सकते हैं। इसी प्रकार बच्चों में मृत्यु दर के आंकड़े वास्तविक आधार पर एकत्रित किए जाते हैं, उससे भी कोई समस्या दिखाई नहीं देती। लेकिन इन आंकड़ों का सही विश्लेषण करना भी जरूरी है। भारत में बच्चों में कुपोषण की समस्या लंबे समय से है, लेकिन यह कम हो रही है। वर्ष 1998-2002 के बीच अपनी आयु से ठिगने बच्चों का अनुपात 54.2 प्रतिशत से घटता हुआ वर्ष 2016-2020 के बीच में 34.7 प्रतिशत ही रह गया है। अब बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि बच्चे पहले से ज्यादा लंबे हो रहे हैं, इसलिए बढ़ती लंबाई के चलते उनमें पतलापन आ रहा है, जो अच्छा संकेत है। ऐसे में भुखमरी मापने की कार्यपद्धति में दोष दिखाई देता है।