100 वर्ष पहले पूरा विश्व जिस तरह महामारी के आगे बेबस थी वही हाल अब भी है
आधुनिक “राष्ट्र” राज्य की अवधारणा अपने भौगोलिक परिक्षेत्र और नागरिकों की सुरक्षा की प्रत्याभूति देती है। सामरिक सामर्थ्य हासिल करना प्रत्येक “राष्ट्र” की स्वाभाविक आवश्यकता है। शीतयुद्ध के खात्मे और नई अर्थ केंद्रित विश्वव्यवस्था के आकार लेने के साथ ही दुनिया से सामरिक संघर्ष और शस्त्रों की होड़ कम नहीं होनी चाहिए थी? ग्लोबल इकॉनमी, विश्व ग्राम और वैश्विक आरोग्य एवं कल्याण के अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से भरी मौजूदा विश्व व्यवस्था की वास्तविक प्राथमिकताएं आखिर हैं क्या? पूंजीवाद और साम्यवाद के ध्रुवों के विलोपित हो जाने के बावजूद आज दुनिया पूंजीवादी राष्ट्रों के नए सुगठित और सुनियोजित बाजारवाद के चंगुल में फंसी हुई है? क्या बदलती ग्लोबल वैश्विक व्यवस्था में समानांतर रूप से सैन्य व्यय कम होकर नागरिक कल्याण सर्वोपरि प्राथमिकताओं में नहीं आने चाहिए थे। यह वर्ष हिरोशिमा और नागासाकी पर दुनिया की पहली आण्विक विभीषिका के 75 साल पूर्ण होने का भी है। इस त्रासदी के अक्स में भी देखें तो कोरोना से जूझते मानवजगत के लिए यह विचारणीय पक्ष है की हम दुनिया को किस राह पर ले जा रहे हैं? जिस तेजी के साथ दुनिया में हथियारों की होड़ लगी है उससे यही साबित होता है कि विज्ञान की कौशलपूर्ण निधि आज भी उसी अंधी गली में दौड़ लगा रही है जिसने हिरोशिमा और नागासाकी जैसे पीढ़ीगत जख्म मानव समाज को दिए थे।
कोरोना ने पूरी दुनिया की प्राथमिकताओं को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। कोरोना से कराहती मानवता के भावी कल्याण का बेहतर विकल्प आज समवेत रूप से हथियारों की होड़ को प्रबंधित करने का भी हो सकता है। क्योंकि ताजा अनुभव यह भी प्रमाणित करते हैं कि कोई भी देश अपनी पूंजी या प्रौद्योगिकी के बल पर अकेले कोरोना जैसी महामारियों से नहीं जीत पायेगा। इस मौजूदा महामारी से निबटने में नाकाम दुनिया की स्थिति जनआरोग्य के मामले में 100 साल पुरानी ही इबारत के पुनर्वाचन जैसी लगती है। सकल मानवीय आवश्यकता और मानक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का संतुलन आज भी बेहद खराब दौर में है।
1918 में फैली वैश्विक इन्फ्लुएंजा महामारी से करीब 5 करोड़ लोगों की मौत हुई थी और एक तिहाई आबादी बीमार रही। आज दुनिया की आबादी 4 गुना बढ़ चुकी है और एक व्यक्ति संक्रमण वाहक के रूप में 36 घंटे में विश्व के किसी भी कोने में पहुँच सकता है। कोविड-19 अगर काबू में नहीं आ सका तो विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि यह आंकड़ा 5 करोड़ तक जा सकता है। हार्वर्ड ग्लोबल इंस्टिट्यूट के निदेशक डॉ. आशीष झा के अनुसार अकेले भारत में अक्टूबर 2020 तक कोरोना से मरने वालों की संख्या 1 लाख 36 हजार 536 हो सकती है। डब्लूएचओ के 267 अलग-अलग शोधकर्ताओं के अनुसार इंफेक्शन फेटेलिटी रेट यानी संक्रमण से होने वाली मौतें पूरी दुनिया में 5 करोड़ के नजदीक ही संभावित हैं। यानि 2020 की दुनिया उसी 1918 के दौर में खड़ी नजर आ रही है?
प्रतिष्ठित जर्नल लासेन्ट ने अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के शोध को जगह देते हुए बताया है कि करीब पांच महीने बाद दुनिया में 12 लाख बच्चे और 57 हजार माँ कोरोना के सह संबंधित प्रभावों के चलते मौत के मुँह में जा सकते हैं। इसी विश्वविद्यालय द्वारा जारी “ग्लोबल हैल्थ सिक्योरिटी रपट” में बताया गया है कि पूरी दुनिया में कोविड-19 जैसी महामारी से निबटने का कोई प्रामाणिक सिस्टम मौजूदा नहीं है। इस रपट में कोई भी देश 100 में से 40.2 स्कोर को पार नहीं कर पाया, यानि किसी भी देश के पास वैश्विक महामारियों एवं संक्रमण से अपने नागरिकों को बचाने के लिए कोई कारगर तंत्र उपलब्ध ही नहीं है।
अमेरिका, स्पेन, रूस, इटली जैसे मुल्कों में कोविड के कहर से जुटी नागरिकों की लाशें इस विमर्श को भी खड़ा करतीं हैं कि क्या दुनिया को” वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा” को लेकर एक नई साझी और समावेशी नीति की ओर नहीं बढ़ना चाहिये ? यह भी समझना होगा कि अमेरिका और रूस जहाँ कोरोना से सर्वाधिक मौतें हुई हैं वे दुनिया के सबसे बड़े हथियार निर्माता और निर्यातक मुल्क हैं। इनके पास कुल 3750 एक्टिव परमाणु बम्बों में से 3250 का जखीरा है और दुनिया के लगभग हर मुल्क में इन देशों की फैक्ट्रियों से निकले अस्त्र शस्त्र मौजूद हैं। हकीकत यह है की दुनिया में हथियारों का बाजार लोकस्वास्थ्य से आगे इसलिये महत्वहीन है क्योंकि यह अमेरिका, रूस, फ्रांस और यूरोप के एकाधिकार को बनाये हुए है। स्वीडन की स्वतंत्र संस्था “सीपरी” के अनुसार दुनिया में हथियारों का कारोबार 1917 बिलियन डॉलर का है।
इस अथाह कारोबार में 100 बड़ी कम्पनियां हैं जिनमें 43 अकेले अमेरिका, 10 रूस और 27 यूरोपीय मुल्कों की हैं। अब इस कारोबार के दूसरे पक्ष को भी समझना चाहिये, भारत ने 27.86 लाख करोड़ के 2020-21 के बजट में से 3.5 लाख करोड़ की राशि रक्षा मद के लिये रखी जबकि लोकस्वास्थ्य पर 2019 में हमारा कुल खर्च 64999 करोड़ ही था। यह जीडीपी का मात्र एक फीसदी है और रक्षा पर यह आंकड़ा 2.2 फीसदी है। पाकिस्तान में स्वास्थ्य खर्च 510 और बांग्लादेश में 4866 करोड़ था। इन दोनों देशों ने डिफेंस पर 2019 में क्रमशः 53164 और 27040 करोड़ खर्च किया। इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि दुनियाभर में हथियारों की होड़ केवल अपने नागरिकों की सीमाई मुल्कों से रक्षा के लिए नहीं है, असल में यह चंद धनी मुल्कों और कारोबारी घरानों के इशारों पर नाचती वैश्विक व्यवस्था का बदनुमा पक्ष भी है।
सवाल बुनियादी रूप से यही है कि विश्व में नागरिकों की सुरक्षा हथियारों के बल पर की जाना अधिक जरूरी है या महामारियों से? यानि कोविड और ऐसे ही अवश्यंभावी संक्रमण से मानवता को बचाने के लिए वैश्विक स्वास्थ्य एजेंडा सुस्थापित करने का वक्त नहीं आ गया है? क्या जिन मुल्कों ने हथियारों के बाजार सजाए हैं वे इस संक्रमण से बच सके हैं? वे तो गरीब मुल्कों से ज्यादा संक्रमित हुए और उनके यहां लाशों के ढेर लग गए। यानि उनकी सम्पन्नता कोई काम नहीं आ सकी। स्पष्ट है कि आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद कोई भी देश आज या भविष्य में कोविड जैसे अन्य खतरनाक संक्रमणों से अकेले लड़ाई नहीं लड़ सकता है। दुनिया भर में 10 हजार इंटरनेशनल फ्लाइट्स प्रतिदिन उड़ती हैं और कोरोना संक्रमण का रीप्रॉडक्शन नम्बर 2:6 है जबकि 2009 में फैले स्वाइन फ्लू का यह नम्बर 1.3 था। यानि एक कोरोना पोजेटिव व्यक्ति 6 अन्य को संक्रमित कर सकता है।
शोध संस्थान बायोआरर्काइव्स में अपने एक अध्ययन में यह भी बताया है कि जलवायु परिवर्तन का एक खतरनाक पक्ष ग्लेशियरों के पिघलने के साथ नए वाइरस को जन्म देना भी है। अकेले तिब्बती ग्लेशियरों में 35 वायरस पाए गए जिनमें 28 पूरी तरह से नए हैं। जाहिर है दुनिया में वायरस अटैक की कोविड-19 जैसी संभावनाएं आने वाले वक्त में बलवती हैं। ऐसे में मानव जाति की रक्षा अमेरिकी या यूरोपियन ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां और उनके उत्पाद कर पाएंगे या ग्लोबल स्वास्थ्य सेवाएं? तथ्य यह है कि आज वैश्विक प्राथमिकताओं को नए सिरे से निर्धारित किये जाने का सबसे उपयुक्त समय आ गया है। जितना कठिन मानवता को इन संक्रमित हमलों से बचाया जाना है शायद खतरनाक आयुध का विनिर्माण और निर्यात उतना चुनौतीपूर्ण नहीं है।
राष्ट्रीय हित औऱ सामरिक सुरक्षा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है तथापि कोविड-19 के त्रासदपूर्ण अनुभव के बाद वैश्विक प्राथमिकताओं में लोकस्वास्थ्य को सर्वोपरि रखने के लिए एक समावेशी पहल अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी जैसे धनी मानी मुल्कों को करनी ही होगी। यह भी तथ्य है कि ऐसा किया जाना व्यवहार में बहुत आसान भी नहीं है लेकिन इन्हीं सम्पन्न देशों का हैल्थ सिस्टम जिस तरह से कोविड के आगे लाचार नजर आया उससे आशा की जाना चाहिये कि दुनिया इस मौजूदा और आने वाले संकट की भयावहता को समझ कर मानवता के हक में आगे आने का संकल्प लेगी।
(साभार: प्रभा साक्षी)