Rajyasabha Election -क्रॉस वोटिंग क्या अंतरात्मा की आवाज है या कुछ और …. ?
Rajyasabha Election -उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में हुई राज्यसभा चुनाव की वोटिंग में विधायकों के पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर मतदान करने यानी क्रॉस वोटिंग की खबरें अभी ताजी हैं। हिमाचल में क्रॉस वोटिंग से जहां कांग्रेस के पैरों तले जमीन खिसक गई है। वहीं, उत्तर प्रदेश में समाजवादी प्रमुख अखिलेश यादव की बौखलाहट साफ झलकर रही है। यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने कहा कि वो जो लाभ पाने वाले हैं, चले जाएंगे। उनके इस बयान से उनकी हताशा साफ नजर आई है।हालांकि भारतीय राजनीति में क्रास वोटिंग की बात नई नहीं है। दशकों पुरानी है लेकिन अक्सर राष्ट्रपति चुनावों से लेकर राज्यसभा चुनावों तक में ये स्थिति देखने में आती है कि सांसद और विधायक पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट देते हैं। पार्टी कसमसा कर रह जाती हैं। उन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पातीं। कार्रवाई जरूर कर सकती हैं लेकिन वोटिंग के बाद ही। लेकिन उन्हें संविधान और कानून का वो आधार नहीं मिलता, जो व्हिप का उल्लंघन करने पर खुद-ब-खुद हासिल हो जाता है।गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की 15 राज्यसभा सीटों के लिए 27 फरवरी को हुए चुनाव में विधायकों ने कुछ ऐसा ही किया। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के 08 विधायकों ने क्रासवोटिंग की तो हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के 06 विधायकों ने ये किया तो कर्नाटक में 02 बीजेपी विधायकों ने पार्टी लाइन से अलग जाकर वोटिंग की।
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वैसे भारतीय राजनीति में क्रास वोटिंग का सबसे तहलकेदार मामला 1969 में राष्ट्रपति चुनावों के दौरान हुआ था जबकि कांग्रेस ने तब आधिकारिक तौर पर नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनाया था लेकिन इस चुनावों में वीवी गिरी स्वतंत्र प्रत्याशी के तौर पर खड़े थे। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पार्टी लाइन से अलग जाकर अपनी ही पार्टी के सांसदों और विधायकों से अंतररात्मा की आवाज पर वोट देने की बात की थी।नतीजा ये हुआ कि उस चुनावों में कांग्रेस के सांसदों से लेकर विधायकों ने अपनी ही पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार की जगह वीवी गिरी के पक्ष में वोट डाला। कांग्रेस सिंडिकेट द्वारा खड़े किए गए प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी हार गए। वीवी गिरी चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बने। उस चुनावों में वीवी गिरी को 420,077 इलेक्टोरल वोट मिले तो नीलम संजीव रेड्डी को 405,427 वोट।इसके बाद क्या हुआ, वो अलग कहानी है, क्योंकि इसके बाद इसी क्रास वोटिंग के चलते कांग्रेस की टूट गई। इंदिरा गांधी ने अपनी नई कांग्रेस बनाई। ये पहला वाकया था जब भारतीय राजनीति में बड़े पैमाने पर क्रास वोटिंग हुई। कांग्रेस सिंडिकेट को साफ मालूम था कि क्रास वोटिंग होगी लेकिन तब भी वो इसे रोकने के लिए व्हिप जारी नहीं कर पाए।
संविधान और कानून की मानें तो राष्ट्रपति और राज्यसभा के चुनावों में पार्टियों द्वारा व्हिप जारी करना संविधानसम्मत या कानून सम्मत नहीं है। इसे अगर अदालतों में चुनौती दिया जाए तो पार्टियों को हार का सामना करना पड़ सकता है। कांग्रेस ने इस राज्यसभा चुनावों के लिए तीनों राज्यों में मानक से हटकर तीन-लाइन व्हिप जारी किया था लेकिन बाद में पार्टी को इसको वापस लेना पड़ा था।इस मामले पर कानूनी बहस शुरू हो चुकी है कि राज्यसभा चुनाव के लिए व्हिप क्यों जारी नहीं किया जाता है। व्हिप की अनुपस्थिति और “अंतरात्मा की आवाज पर वोट” की अपील से विधायकों के लिए दल-बदल विरोधी कानून या 10वीं अनुसूची के तहत किसी भी कार्रवाई से बचना आसान हो जाता है, भले ही वो क्रॉस-वोटिंग करें।जब कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी ने अपने सभी विधायकों को पार्टी के उम्मीदवार अभिषेक सिंघवी के लिए वोट करने के लिए तीन-लाइन व्हिप जारी किया तो भारतीय जनता पार्टी ने इसे 25 फरवरी को भारत के चुनाव आयोग में चुनौती दी। कांग्रेस पर हिमाचल प्रदेश में चुनाव के संचालन के नियमों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया, तब कांग्रेस को व्हिप के फैसले से पीछे हटना पड़ा।हिमाचल प्रदेश सरकार में मंत्री हर्षवर्द्धन चौहान ने कहा था कि शुरुआती दौर में हमने व्हिप जारी करने पर विचार किया था, लेकिन जब हमें पता चला कि राज्यसभा चुनाव में व्हिप मायने नहीं रखता, तो हमने व्हिप जारी नहीं किया।
Rajyasabha Election -कर्नाटक में, जहां एक भाजपा विधायक ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। भाजपा और जनता दल (सेक्युलर) सहित सभी दलों ने व्हिप जारी किया था। लेकिन तब भी व्हिप को तोड़ा गया।विधायी मामलों के विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव, पीडीटी आचार्य का कहना है, कोई भी पार्टी 10वीं अनुसूची के तहत किसी भी विधायक के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकती, क्योंकि राज्यसभा चुनाव में मतदान के लिए व्हिप जारी नहीं किया जा सकता।उनका कहना है कि यह मतदान सदन के अंदर नहीं है बल्कि चुनाव आयोग द्वारा आयोजित किया जाता है। इसमें कोई पार्टी चाबुक नहीं चल सकती। ये कानून से अच्छी तरह से स्थापित है। हां अगर कोई विधायक इसके बाद स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है तो जरूर 10वीं अनुसूची लागू की जा सकती है।पूर्व लोकसभा महासचिव का कहना है कि अगर किसी विधायक ने अपनी ही पार्टी या सरकार के हित के खिलाफ काम किया है, तो विधानसभा अध्यक्ष इसकी व्याख्या “स्वैच्छिक रूप से सदस्यता छोड़ने” के रूप में कर सकते हैं। स्पीकर उन्हें बागी मानकर अयोग्य घोषित कर सकते हैं, जो हिमाचल में देखने को मिल सकता है।जबकि क्रॉस वोटिंग का सीधा मतलब है कि अपनी पार्टी के खिलाफ जाकर दूसरी पार्टी के पक्ष में वोट करना फिर भी कार्यवाही न हो पाना लोकतंत्र की कमजोरी माना जा सकता है । आमतौर पर दुनियाभर में राजनीतिक दलों के बीच संसद या महत्वपूर्ण मामलों में क्रासवोटिंग के उदाहरण हैं। हालांकि, पार्टियां इसे व्हिप जारी कर रोकने की पूरी कोशिश करती हैं। हालांकि, कई बार राजनीतिक दलों को इसमें नाकामी मिलती है। राज्यसभा चुनावों में दलबदल कानून लागू नहीं होने के कारण क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती हैं। साफ है कि हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पार्टी लाइन के खिलाफ जाने वाले विधायकों पर पार्टी नेतृत्व कोई कार्रवाई नहीं कर पाएगा।
संविधान के मुताबिक पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर मतदान करने वाले विधायकों की विधानसभा सदस्यता नहीं छीनी जा सकती है। लेकिन, कोई भी राजनीतिक दल क्रॉस वोटिंग करने वाले अपने विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता जरूर दिखा सकता है। ये पार्टी नेतृत्व का विशेषाधिकार होता है। साफ है कि दोनों ही राज्यों में राजनीतिक दल अपने जिस-जिस विधायक का नाम क्रॉस वोटिंग में सामने आएगा, उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा सकती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी पार्टी की प्राथमिकता सदस्यता तक छीनी जा सकती है। हिमाचल में ये पूरी तरह से कांग्रेस तो यूपी में सपा पर निर्भर होगा कि वे ऐसे विधायकों के खिलाफ क्या कार्रवाई करते हैं।वैसे तो राज्यसभा चुनाव में किसने किसे वोट किया, ये सीधे तौर पर पता नहीं किया जा सकता है। लेकिन, हर पार्टी में अंदरूनी तौर पर इस बात का पता कई तरीकों से लगाया जा सकता है। कई बार इसका पता नहीं लगता। लिहाजा, इन चुनावों में क्रासवोटिंग करने वालों के खिलाफ पार्टी बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं होती है।बताया जाता है कि संसद में अनुभवी और योग्य लोगों को लाने के लिए राज्यसभा गठन हुआ। मकसद था कि इन्हें आम चुनावों की उथल-पुथल से बचाया जा सके और चर्चाओं एवं कानून बनाने की गुणवत्ता बढ़ाई जा सके। हालांकि कुछ ही वर्षों बाद राज्यसभा के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव विवादों में घिर गया। चर्चा होने लगी कि गुप्त मतदान के माध्यम से मतदान को प्रभावित करने में धन और बाहुबल की महत्वपूर्ण भूमिका है। वरिष्ठ कांग्रेस सांसद विभूति मिश्रा ने 30 मार्च 1973 को लोकसभा में निजी सदस्य विधेयक पेश किया, जिसमें राज्यसभा को खत्म करने की मांग की गई थी। उनका तर्क था कि राज्यसभा के चुनाव भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो गए हैं। उस समय हर कोई जानता था कि गुप्त मतदान राज्यसभा सदस्य चुनने के लिए मतदान के दौरान भ्रष्टाचार का खुला निमंत्रण था। हालांकि राज्यसभा को खत्म करने के लिए विधेयक पेश करने के प्रयास को विरोध का सामना करना पड़ा और इस मुद्दे को एसबी चव्हाण की अध्यक्षता वाली संसद की आचार समिति के पास भेज दिया।
Rajyasabha Election -समिति की रिपोर्ट, जिसे 15 दिसंबर, 1999 को स्वीकार किया गया, उसमें चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह अक्सर आरोप लगाया जाता है कि बड़ी मात्रा में धन और अन्य कारण मतदाताओं को एक खास तरीके से मतदान करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जिससे कभी-कभी उनकी अपनी राजनीतिक पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवारों की हार हो जाती है। बड़े पैमाने पर पैसे और अन्य कारणों को चुनावी प्रक्रिया में दखल न देने देने के लिए, समिति का विचार है कि गुप्त मतदान के बजाय, राज्य सभा और राज्यों में विधान परिषदों के चुनाव खुले मतपत्र द्वारा कराने के सवाल पर विचार किया जा सकता है। एनडीए सरकार ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन के लिए एक विधेयक को आगे बढ़ाया और ‘ओपन बैलेट’ प्रणाली लाई। इसका प्रभाव यह हुआ कि किसी सांसद या विधायक द्वारा मतपत्र को मतपेटी में डालने से पहले, राजनीतिक दल के अधिकृत एजेंटों को यह सत्यापित करने की अनुमति दी जाएगी कि उसने किसे वोट दिया है। यदि वह मतपत्र दिखाने से इनकार करता है तो उसे अमान्य कर दिया जाएगा। इस प्रकार उसे पार्टी के अधिकृत एजेंट को दिखाने के लिए बाध्य किया जाएगा। इसको बाद में कुलदीप नैयर ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और आरोप लगाया था कि इसने मतदाता की स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति को दबा दिया है, जो लोकतंत्र का मूल है। तत्कालीन सीजेआई वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 22 अगस्त, 2006 को सर्वसम्मति से ‘ओपन बैलेट’ प्रणाली की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था ।