देश-विदेश में चर्चित है गाजियाबाद जिले के मसूरी गांव की यह पीली कोठी
गाजियाबाद। लायक हुसैन। आज हम आपको एक ऐसी इमारत और ऐसे गांव के बारे में बताने का प्रयास कर रहे हैं जो कि देश विदेश में चर्चित तो है परन्तु लोग इस ओर अपना ध्यान आकर्षित नहीं करते,अब आप यह जान लीजिए कि हमने गाजियाबाद जिले में मसूरी को गांव इसलिए लिखा है चूंकि उस बक्त यह गांव था लेकिन आज यहां पर बहुत कुछ बदल गया है तो अब इसे लोग गांव तो नहीं कहते चूंकि यह जगह आज एक कस्बे के रूप में है और यहां पर बहुत कुछ बदल गया है लेकिन इस मसूरी गांव का नाम चर्चित क्यों है यह बात बेहद अहम है और जानना भी चाहिए चूंकि यहां पर 1864 में बनी इस पीली कोठी को ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1864 में पीली कोठी नाम का निर्माण कराया था, और 3 बीघा जमीन में बनी इस कोठी में 36 कमरे हैं, जबकि इसका कुल रकबा 20 बीघा है। आपको बता दें कि इस 4 मंजिला कोठी में तीन कमरों में आतिशदान भी बने हैं। इनमें सर्दी में आग जलाने पर कोठी गरम रहती थी। मसूरी और इसके आसपास के इलाकों पर नजर रखने की जिम्मेदारी दिल्ली में यमुना के लोहे का पुल बनाने वाले इंजीनियर जॉन माइकल्स को दी गई थी। हालांकि जॉन माइकल्स का पुलिस या सेना से कोई संबंध नहीं था। अब सबसे अहम बात यह है कि इस कोठी के साथ उस समय उन्हें साढ़े 12 गांव भी दे दिए गए थे। उस समय की व्यवस्था के तहत इन गांवों के किसानों को माइकल्स को लगान देना पड़ता था। इस कोठी के निर्माण के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेशनल हाईवे 9 पर स्थित इस इमारत के अलावा अंग्रेजों ने गंग नहर की झाल पर 8 चौकियों का भी निर्माण कराया था। अब होता क्या है यह समझने का विषय है। बहादुर शाह जफर की हार के साथ अंग्रेजों ने 1857 में दिल्ली पर अपना कब्जा जमा लिया था। अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखना उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती थी। आस-पास के इलाकों पर नजर रखने के लिए तमाम अफसरों को जिम्मेदारी सौंपी गई। उनके रहने के लिए अनेकों कोठियां भी बनाई गईं और इन्हीं में से एक कोठी डासना के पास मसूरी में बनवाई गई थी जिसका हम यहां पर जिक्र कर रहे हैं,जो पीली कोठी के नाम से मशहूर है
उस जमाने के जाने-माने मैकेनिकल इंजीनियर जाॅन माइकल्स अपने काम में माहिर होने के चलते बेहद मशहूर थे
दिल्ली-कलकत्ता रेल ट्रैक बिछाने वाले प्रोजेक्ट में मैकेनिकल इंजीनियर जॉन माइकल्स ने दिल्ली का प्रसिद्ध लोहे का पुल उन्होंने ही बनवाया था ब्रिटिश सरकार ने उनके इस कार्य से खुश होकर यह जागीर इनाम के तौर पर जॉन माइकल्स को दी थी। और वहीं पर एक और खास बात यह है कि उस दौरान बनाया गया रेलवे स्टेशन इस पीली कोठी तक आसानी से पहुंचने के लिए अंग्रेजों ने डासना में रेलवे स्टेशन का निर्माण भी कराया। अब आप यह भी जान लीजिए कि हमारी तहकीकात के अनुसार यह दावा इस गांव के लोग करते हैं,हालांकि इसका कोई ऐतिहासिक सबूत नहीं हैं। और एक खास बात यह है कि उस दौरान समय के साथ अंग्रेजों की स्थिति बहुत मजबूत हो गई। निगरानी की जिम्मेदारी से जॉन माइकल्स को मुक्त कर दिया गया था। लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं होती चूंकि जिंदगी के आखिरी पड़ाव में जॉन माइकल्स काफी कर्ज तले फंस गए थे। उस समय जॉन माइकल्स ने यह कोठी अपनी बेटी ए एल कोपिंगर के नाम पर कर दी थी। ए एल कोपिंगर इस इलाके में मिस साहब के नाम से मशहूर थीं। कुछ सालों बाद इस पीली कोठी का मालिकाना हक एक बार फिर बदल गया। जब कॉपिंगर ने अपनी बेटी की शादी अपने मैनेजर करकनल से कर दी। कॉपिंगर की मौत के बाद करकनल इस कोठी के मालिक बन गए। और पूर्व व्यवस्था के तहत उन्हें क्षेत्र के साढ़े 12 गांवों की कृषि और आवास का लगान वसूल करने का अधिकार भी मिल गया। ताकि पीली कोठी की शान बनी रहे श्वेत होने के कारण करकनल अपने को भारतीयों से श्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने बेटे और बेटी को पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया, लेकिन वह यहां पर अकेले रहते थे। अपनी श्रेष्ठता को मनवाने के लिए उन्होंने अपने क्षेत्र में पक्की ईंट के मकान बनाने पर पाबंदी लगा दी थी और वह सिर्फ इसलिए ताकि पूरे इलाके में सिर्फ एक ही कोठी नजर आए। हैरत अंगेज रूप से श्वेत होने के नाते खुद को श्रेष्ठ समझने वाले करकनल भारत के आजाद होने के बाद इंग्लैंड नहीं लौटे। उन्होंने यहीं पर बसने का फैसला किया। इस बीच 1952 जमींदारा उन्मूलन एक्ट आ गया। इससे करकनल के कब्जे वाले साढ़े 12 गांव के किसानों को लगान से आजादी मिल गई और इसी के चलते करकनल की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ गई। इस दौरान करकनल अवैध रुप से जमीन बेचने लगे। अब आप यह जान लीजिए कि बात यहीं पर खत्म नहीं होती चूंकि बात यहां तक पहुंच गई थी कि उन्होंने गांवों में स्थित चारगाहों को भी बेच डाला था। साथ ही डीसीएम को 40 बीघा जमीन भी बेच दी थी। यह मामला बाद में कोर्ट में चला गया। अब होता क्या है कि माननीय हाई कोर्ट ने इस भूमि को वर्ष 2020 में पुन: एलएमसी में घोषित कर दिया। 1977 में कोठी बेच गए करनकल अपनी कोठी में डटे रहे। 1977 में वह दूध व्यापारी हाजी नजीर अहमद को पीली कोठी तीन लाख रुपये में बेचकर इंग्लैंड लौट गए। हाजी नजीर के बाद यह कोठी उनके बेटे पूर्व सांसद अनवार अहमद के पास आ गई। फिलहाल अनवार अहमद के पुत्र इफ़्तिख़ार अहमद परिवार समेत इस कोठी में रह रहे हैं। हालांकि मरम्मत के अभाव में इस कोठी का कई जगह से प्लास्टर भी झड़ रहा है। और पुताई को भी काफी लंबा अरसा हो गया। इस पीली कोठी को देखने के लिए फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन के सुपुत्र फिल्म स्टार अभिषेक बच्चन भी आए थे, और कई फिल्मों की शूटिंग भी इस कोठी में हुई है। सुपर-6 और भंवर जैसे कई हॉरर सीरियलों की शूटिंग भी यहां हुई है। इफ़्तिख़ार अहमद बताते हैं कि करीब 20 साल पहले अभिषेक बच्चन की फिल्म रन की शूटिंग इस कोठी में हुई थी। इफ़्तिख़ार अहमद बताते हैं कि अभिषेक शूटिंग के लिए दो दिन यहां आए थे। और वह दिल्ली से आते थे और शूटिंग करके वापस दिल्ली चले जाते थे।और कहां तक आसमां तक फिल्म की शूटिंग भी 15 दिनों तक यहां पर हुई थी ऐसा इफ़्तिख़ार अहमद का कहना है।