गोलकुंडा की खदान से लंदन के म्यूजियम तक ऐसा रहा ‘कोहिनूर’ का सफर

क्या आपने कभी यह सोचा है कि किसी भी वस्तु की कीमत क्या होती है और उसे कैसे तय किया जाता है या फिर आंका जाता है? आधुनिक युग में कीमत को मुद्रा के रूप में मापा जाने का चलन है। पर सोचिए कि आज से 500 या 700 साल तक किसी वस्तु की कीमत कैसे तय की जाती रही होगी।उदाहरण के लिए ताजमहल, जब यह बनकर तैयार हुआ होगा तब इसकी कीमत क्या आंकी गई होगी? हालांकि आज यह अनमोल है। तख्त-ए-ताउस की कीमत क्या होगी? ऐसा ही एक सवाल है कोहिनूर का। इस पत्थर को बेशकीमती क्यों माना जाता है, किसने इसकी कीमत तय की।काकतीया साम्राज्य से लूटे जाने के बाद से लंदन के म्यूजियम तक कोहिनूर पहुंचने की कहानी बेहद दिलचस्प है। आपको यह जानकर हैरत होगी कि इस बेशकीमती हीरे के दर्जनों मालिक हुए, पर किसी ने भी इसे खरीदा नहीं था। उसे हमेशा छीना, लूटा या मांगा गया। अंग्रेजों के लिए इसकी कीमत 200 साल है क्योंकि इतने ही साल उन्होंने भारत पर राज किया। लेकिन हमारे देश के लिए इसकी कीमत क्या है यह जानने के लिए हमें इसके इतिहास को जानना होगा।कोहिनूर का नाम दुनिया के सबसे बड़े और प्रसिद्ध हीरों में शामिल है। आज भी इसकी कीमत का अंदाजा लगाना संभव नहीं है। जब यह मुगल आक्रांता बाबर के हाथों में था, तो उसने इसकी कीमत को काफी अलग तरह से आंका था। उसका मानना था कि कोहिनूर की कीमत इतनी है, कि इससे पूरी दुनिया के लोगों को ढाई दिनों तक खाना खिलाया जा सकता था। वहीं जब नादिर शाह इसका मालिक बना तो ने इसे देखा तो कहा कि यदि कोई शख़्स चारों दिशाओं में और एक पत्थर ऊपर उछाले और उस बीच की जगह को सोने से भर दिया जाए तो भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती। कोहिनूर के साथ एक दिलचस्प बात जुड़ी है कि आज तक न इसे कभी बेचा गया न ख़रीदा गया है। इसे हमेशा छीना, जीता या तोहफे में ही दिया गया है।इतिहासकारों की माने तो आंध्र प्रदेश के गुंटूर से निकले इस हीरे का सफर काकातीय, ख़िलजी, मुग़ल, फ़ारसी, अफ़ग़ान, सिख और अंग्रेज़ साम्राज्य तक पहुंचा। 186 कैरेट के इस बेशकीमती हीरे को हर एक राजा ने अपनी शान माना। और इसे पाने की तरकीबें अपनाई। कोहिनूर 1100-1300 के बीच काकातीय सम्राज्य में गुंटूर के गोलकुंडा खदान से निकला था। कहा जाता है कि कोहिनूर 793 कैरट का था। जिसे वारंगल के एक काकतीया मंदिर में प्रमुख अधिष्ठात्री देवी की मूर्ति में आंख के रूप में जड़ा गया था। 14वीं सदी में जब अलाउदीन ख़िलजी दक्षिण भारत पर आक्रमण कर रहा था तब उसके सेनापति मलिक कफ़ूार को एक आक्रमण के दौरान ये मिला था। कुछ इस तरह कोहिनूर दिल्ली सम्राज्य के पास आया और समय के साथ साथ अलग–अलग राजाओं के पास गया।1526 में इब्राहिम लोदी को हराने के बाद दिल्ली की सारी दौलत बाबर के हाथ लगी। बाबर ने अपने आत्मकथा में कोहिनूर को ‘डायमंड ऑफ बाबर’ कहा है। और यही हमें कोहिनूर का सबसे पहला लिखित सबूत प्राप्त होता है। कुछ लोगों का मानना है कि बाबर के 1526 में जीतने के बाद ग्वालियर के राजा द्वारा गिफ्ट किया गया था। पर जो भी हो अंततः ये हुआ कि अब ये मुग़लों के पास था। हुमायूं, अकबर से होते हुए कोहिनूर शाहजहां तक पहुंचा और उसने इसे ‘पीकॉक थ्रोन’ यानि तख्त–ए–ताउस का ताज बनाया। ऐसा कहा जाता है कि पीकॉक थ्रोन अपने आप में इतना बेशकीमती था कि इसे बनाने में सात साल लगे थे। इसमें इतना खर्च हुआ था कि चार ताजमहल बनवाए जा सकते थे।औरंगज़ेब के राज के दौरान फ्रेंच यात्री टैवनियर आया था, जब औरंगजेब ने उसे कोहिनूर दिखाया तो उसने इसका चित्र बनाने की उत्सुकता जताई और इस तरह पहली बार हमें कोहिनूर का पहला चित्र मिला। औरंगजेब ने कोहिनूर को और खूबसूरत बनाने की ज़िम्मेदारी वेनिस के एक रत्न के विशेषज्ञ बोर्गिया को दी पर उसने इसे लापरवाही से काटते हुए इसे 793 से 186 कैरेट का कर दिया।जब मुग़ल काल अपनी आख़िरी सांस ले रहा था तब मुहम्मद शाह रंगीला के शासन के दौरान नादिरशाह ने 1739 में आक्रमण किया और क़त्लेआम मचा दिया, और मुग़ल ख़ज़ाने के साथ साथ पीकॉक थ्रोन, कोहिनूर और उसकी बहन ‘दरिया ए नूर’ भी लूट लिया। उसकी खूबसूरती से मोहित होकर नादिर शाह ने इसका नाम कोहिनूर दिया। फ़ारसी में कोह का मतलब पहाड़ और नूर का मतलब चमक होता है। जिसे उसने माउंटेन ऑफ लाइट नाम दिया। 1747 में अहमद शाह ने नादिर शाह की हत्या कर दी और कोहिनूर अहमद शाह के पास चला जाता है।अहमद शाह ने फिर अफ़ग़ानिस्तान में दुर्रानी सम्राज्य को स्थापित किया। यही एक समय ऐसा आया कि दुर्रानी की पकड़ कमज़ोर पड़ने लगी तो राजा शाह सूजा ने पंजाब के राजा रंजीत सिंह से मदद मांगी और उसके बदले उसने कोहिनूर को राजा रंजीत सिंह को भेंट कर दिया।महाराजा रंजीत सिंह ने इसे अपने आर्मलेट में लगवा लिया था और जहां भी जाते अपने साथ ले जाया करते थे। उन्होंने इसे ओडिसा के जगन्नाथ मंदिर में दान करने की इच्छा जताई थी पर ऐसा हो नही पाया। 1839 में रंजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब बिखर गया था। पंजाब ने 4 सालों में चार राजा देख लिए थे। अंत में केवल राजा दिलीप सिंह और रानी जिंदन बची।राजा दिलीप सिंह केवल दस वर्ष के थे। और तब तक अंग्रेजों ने उत्तर भारत पर कब्ज़ा जमा लिया था। अब तक अंग्रेजों को कोहिनूर के बारे में भी पता चल चुका था। 1849 में रानी जिंदन को जेल में डालने के बाद अंग्रेजों ने दिलीप सिंह से लाहौर की संधि की। लार्ड डलहौज़ी की निगरानी में महाराजा की सारी दौलत के साथ–साथ कोहिनूर को भी संधि का हिस्सा बना लिया। जिसमें ये लिखा था कि राजा रंजीत सिंह कोहिनूर को जिसे उन्होंने शाह सूजा उल मलिक से लिया था महारानी एलिजाबेथ को सौप रहे हैं।कोहिनूर को बॉम्बे से इंग्लैंड बहुत गुप्त तरीके से एच एम एस मीडिया नाम के जहाज़ में, जिसके नाविकों को भी इसके बारे में नही पता था, इंग्लैंड ले जाया गया। जुलाई 1850 में कोहिनूर को रानी विक्टोरिया को एक विशेष समारोह में सौंप दिया गया। उसके बाद इसे इंग्लैंड की जनता के लिये प्रदर्शनी में रखा गया।एक अखबार ने इसे माउंटेन ऑफ डार्कनेस नाम दिया और रानी विक्टोरिया भी इसके शेप से खुश नही थी। इसकी वजह से इसे नया रूप देने के लिए अंग्रेज़ी और फ्रेंच विशेषज्ञों ने 450 घण्टे की मेहनत के बाद इसे नया ओवल कट रूप दिया। अब इसका वेट 186 से घटकर 105.6 कैरेट रह गया था। रानी के सिर का ताज बनने के बाद ये कितने ही राजाओं के सिर की शोभा बढ़ा चुका है। आज वो क्राउन और कोहिनूर दूसरे ताज के साथ टावर ऑफ लंदन के ज्वेल हॉउस में देखा जा सकता है।वो पत्थर जिसने अपना सफर काकातीय सम्राज्य से शुरू किया था आज वो ब्रिटिश साम्राज्यवाद का चिन्ह बनकर उस बैरक में कैद है। समय–समय पर भारत में उसे वापस लाने की मांग उठती रहती है। हम आशा करते हैं कि एक दिन हम उसे उसकी सही जगह ला पाएंगे।

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